बिहार की मिट्टी ने न जाने कितने सपूतों को जन्म दिया है, जिन्होंने न सिर्फ इस राज्य बल्कि पूरे भारत की तक़दीर और इतिहास बदलने में अहम भूमिका निभाई। उन्हीं में से एक नाम है मौलाना मजहरूल हक़। एक स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद, वकील और एक संवेदनशील राष्ट्रभक्त के रूप में उनकी पहचान आज भी लोगों के दिलों में ज़िंदा है।
अगर मौलाना मज़हरूल हक़ न होते तो गांधी कभी चंपारण न पहुँचते
जब भी हम भारत की आज़ादी की लड़ाई की बात करते हैं, महात्मा गांधी का नाम सबसे ऊपर आता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि गांधी जी की भारत में पहली ऐतिहासिक सफलता चंपारण सत्याग्रह किसकी वजह से संभव हो पाई? इतिहास के इस मोड़ पर एक ऐसा नाम सामने आता है जिसे भुला दिया गया, लेकिन जिसे भुलाना अन्याय है। वो नाम है: बैरिस्टर मौलाना मज़हरूल हक़।
गांधी की पटना में पहली झिझक
10 अप्रैल 1917 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद राजकुमार शुक्ल के साथ पटना पहुंचे। चंपारण के नील किसानों पर अंग्रेज़ों के अत्याचार की कहानी गांधी को सुनाई गई थी, और गांधी इस पर जांच के लिए खुद चंपारण आना चाहते थे। राजकुमार शुक्ल उन्हें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के घर ले गए, लेकिन दुर्भाग्यवश डॉ. प्रसाद उस समय घर पर नहीं थे। उनके नौकरों ने गांधी को पहचानने से इनकार कर दिया, यहां तक कि उन्हें घर के अंदर टॉयलेट तक इस्तेमाल नहीं करने दिया गया। इस अपमान ने गांधी को अंदर तक झकझोर दिया। वे वापस लौटने का मन बना ही रहे थे कि उन्हें याद आया मौलाना मज़हरूल हक़।

मज़हरूल हक़ का न्योता बना इतिहास
गांधी और मौलाना मज़हरूल हक़ एक-दूसरे को लंदन में पढ़ाई के दौरान से जानते थे। 1915 के कांग्रेस अधिवेशन में फिर से हुई मुलाकात में हक़ ने गांधी से आग्रह किया था कि वे कभी पटना आएं तो उनके घर जरूर आएं। यही निमंत्रण उस दिन गांधी को याद आया। गांधी ने तुरंत तार भेजा या राजकुमार शुक्ल को उनके पास भेजा (जैसा कि शुक्ल ने अपनी डायरी में लिखा है)। मौलाना हक़ तुरंत अपनी बग्घी में आए और गांधी को सिकंदर मंज़िल अपने घर ले गए। यहां गांधी को सम्मान मिला, मार्गदर्शन मिला, और सबसे ज़रूरी चंपारण जाने का हौसला और योजना मिली।
चंपारण के आंदोलन में हक़ की भूमिका
गांधी ने जब चंपारण में अंग्रेज़ी ज़ुल्मों की जांच शुरू की, तब मौलाना मज़हरूल हक़ उनके घनिष्ठ सहयोगी बनकर साथ खड़े रहे। मोतिहारी में जब गांधी पर मुकदमा चला, तो खबर मिलते ही मज़हरूल हक़ वहाँ पहुँच गए। गांधी ने एक बैठक में तय किया कि यदि उन्हें जेल भेजा जाता है, तो आंदोलन की कमान मौलाना मज़हरूल हक़ और ब्रजकिशोर प्रसाद संभालेंगे। हालाँकि बाद में मुकदमा वापस ले लिया गया, लेकिन हक़ का समर्पण गांधी को स्पष्ट दिख गया।
विलासिता से गांधीवाद तक
मौलाना मज़हरूल हक़ का जीवन शुरू में राजसी ठाठ वाला था बड़ी कोठी, विलायती फर्नीचर, किताबें, और शाही जीवनशैली। लेकिन चंपारण आंदोलन ने उन्हें भीतर तक बदल डाला। 16 सितंबर 1920 को मशहूर पत्रकार पीर मुहम्मद मूनिस जब हक़ से मिलने पटना पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि सिकंदर मंज़िल पूरी तरह बदल चुकी है। अंग्रेज़ी फर्नीचर हट चुका था। जगह-जगह स्वदेशी दरी-कालीन, आलमारी में अरस्तू, शेक्सपियर, कालीदास और सादी की किताबें थीं। हक़ मारकीन का कुर्ता-पायजामा पहनते थे। वे गांधी की तरह टोपी भी रखते थे।

इस भव्य परिवर्तन को देखकर मूनिस लिखते हैं कि “बिहार के इस नेता को इस वेश में देखकर देश का भविष्य आंखों के सामने जीवित हो गया।”
असहयोग आंदोलन में भूमिका
जब पीर मूनिस ने मौलाना हक़ से पूछा कि “आप असहयोग आंदोलन में क्या करेंगे?”
तो उन्होंने निश्चयात्मक स्वर में कहा:
- मैं काउंसिल की उम्मीदवारी छोड़ दूंगा,
- बेटे को स्कूल से निकालने के लिए चिट्ठी भेज चुका हूँ,
- मैं बैरिस्टरी छोड़ दूंगा।
और यही हुआ भी। मौलाना ने अपने जीवन के हर सुख को त्याग दिया, और गांधी के सिद्धांतों पर चलने वाले बिहार के सबसे पहले नेताओं में एक बन गए।
गांधी ने कहा: जेंटल बिहारी
गांधी ने अपनी आत्मकथा में कई बार मज़हरूल हक़ का जिक्र किया है और उन्हें “Gentle Bihari” के रूप में याद किया। यह संबोधन सिर्फ प्रशंसा नहीं, बल्कि उस आत्मीयता और विश्वास का प्रतीक था, जो गांधी को हक़ में दिखता था।
यह सवाल बहुत बड़ा है: अगर मौलाना मज़हरूल हक़ उस समय गांधी का साथ नहीं देते,
- तो शायद गांधी चंपारण तक नहीं पहुँचते।
- शायद नील की खेती का शोषण यूँ ही चलता रहता।
- शायद चंपारण सत्याग्रह न होता,
- और शायद भारत की आज़ादी की पहली सफल प्रयोगशाला ना बन पाती।
इसलिए, जब भी आप चंपारण का नाम सुनें, गांधी का नाम लें, तो मौलाना मज़हरूल हक़ को भी जरूर याद करें।
मज़हरुल हक़ बिहार के एक विस्मृत स्वतंत्रता सेनानी
जब भी भारत की आज़ादी की लड़ाई का ज़िक्र होता है, महात्मा गांधी का नाम सबसे पहले ज़ुबान पर आता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि गांधी जी को बिहार लाने वाला और उन्हें चंपारण सत्याग्रह की राह दिखाने वाला पहला इंसान कौन था? जवाब है: बैरिस्टर मौलाना मज़हरूल हक़ एक ऐसा नाम जो इतिहास की परछाइयों में कहीं खो गया, लेकिन जिसका योगदान अतुलनीय है।
लंदन से शुरू हुई दोस्ती, भारत की ज़मीन पर बन गया आंदोलन
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा:
“मैं मौलाना मजहरूल हक़ को लंदन में जानता था, जब वे बार की पढ़ाई कर रहे थे। 1915 के बॉम्बे कांग्रेस अधिवेशन में उनसे पुनः भेंट हुई, जब वे मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे।”
लंदन में मौलाना मज़हरूल हक़ ने Anjuman-i-Islamia नामक संगठन की स्थापना की थी, जो दिखने में मुस्लिम छात्रों के लिए था, पर वास्तव में वह भारत के सभी विद्यार्थियों—हिंदू, मुस्लिम, सिख—के एकजुट मंच का कार्य करता था। डॉ. सचिदानंद सिन्हा के अनुसार, यह संस्था “मुस्लिम-ग़ैर मुस्लिम भारतीयों की मुलाक़ात की सबसे प्रिय जगह” थी। यही मंच गांधी के लिए सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का पहला अनुभव बना।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
22 दिसंबर 1886 को पटना जिले के मनेर थाना अंतर्गत ब्रह्मपुर गाँव में मौलाना मजहरूल हक़ का जन्म हुआ। उनका जीवन आरंभ से ही समाज सेवा और शिक्षा से जुड़ा रहा। उनके पिता एक प्रभावशाली जमींदार थे और परिवार में संपन्नता थी, लेकिन मौलाना ने अपनी सुख-सुविधा छोड़कर राष्ट्र सेवा का मार्ग चुना। वे शेख अमदुल्ला के तीन बच्चों में इकलौते पुत्र थे। उनकी दो बहनें थीं गफरुनीशा और कनीज फातिमा। बचपन से ही उनके अंदर नेतृत्व की झलक साफ दिखती थी, जो आगे चलकर उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक बड़ा चेहरा बना देती है।

फरीदपुर (सिवान) की ओर रुख
लगभग 1900 के आसपास, उनके रिश्तेदारों द्वारा दान में मिली ज़मीन के चलते मौलाना हक़ ने सिवान जिले के फरीदपुर गाँव में बसने का निर्णय लिया। यहां उन्होंने एक सुंदर घर बनवाया और उसका नाम “आशियाना” रखा। यह केवल एक घर नहीं था, बल्कि जल्द ही यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के कई बड़े नेताओं की आवाजाही का केंद्र बन गया।
मौलाना हक़ ने अपने जीवन में कभी भी जाति, धर्म या भाषा की सीमाओं को अपने विचारों में बाधा नहीं बनने दिया। वे हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे और उनका मानना था कि भारत की आज़ादी तभी संभव है जब सभी धर्म, जाति और वर्ग एकजुट होकर लड़ें। उन्होंने अनेक बार असहयोग आंदोलन, खिलाफत आंदोलन, और स्वदेशी आंदोलनों में भाग लिया और कई बार जेल भी गए। लेकिन उनका मनोबल कभी नहीं टूटा।
1906: मुस्लिम राजनीति को मोड़ देने वाला साल
जब 1906 में कुछ मुस्लिम रईसों ने अंग्रेज़ों के पक्ष में एक संगठन बनाना चाहा, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के हर प्रस्ताव का विरोध और ब्रिटिश सरकार का समर्थन करना था, मौलाना मज़हरूल हक़ और हसन इमाम ने इस योजना को विफल कर दिया। उन्होंने All India Muslim League को एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में खड़ा किया, जिसमें सांप्रदायिकता की कोई जगह नहीं थी। हक़ इसके पहले सचिव बने और इसे न केवल संगठित किया, बल्कि उसकी मूल आत्मा में भारतीयता का रंग भर दिया।
शानो-शौकत छोड़कर गांधी के रास्ते पर
मौलाना हक़ कभी विलायती सूट पहनते थे, बड़ी कोठियों में रहते थे, अंग्रेज़ी जीवनशैली में रचे-बसे थे। लेकिन जब उन्होंने गांधी का साथ पकड़ा, तो सबकुछ छोड़ दिया। उन्होंने बैरिस्टरी छोड़ दी, विदेशी वस्त्रों को त्याग दिया, और सादा जीवन, उच्च विचार को अपना लिया। उन्होंने पटना के बाहर एक आश्रम बनवाया सदाक़त आश्रम जो आज भी बिहार कांग्रेस का प्रमुख केंद्र है। वे अब मारकीन का कुर्ता और गांधी टोपी पहनने लगे थे।

1897 का बिहार अकाल और मौलाना मजहरूल हक़ की मानवता की मिसाल
साल 1897 जब बिहार भीषण अकाल की चपेट में था, खेत सूख गए थे, अनाज खत्म हो रहा था, और लोग भूख से बिलख रहे थे। उस समय जब अधिकतर अमीर लोग अपने घरों में सुकून से बैठे थे, मौलाना मजहरूल हक़ लोगों की सेवा में पूरे मनोयोग से लगे थे। उन्होंने राहत कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। ना सिर्फ अपने संसाधनों से भोजन और पानी का इंतजाम किया, बल्कि स्थानीय स्तर पर राहत अभियान चलाए। वे गांव-गांव घूमते, लोगों का हाल लेते और मदद पहुंचाते।
यह घटना केवल एक सामाजिक पहलू नहीं, बल्कि मौलाना हक़ के व्यक्तित्व की गहराई को भी दिखाती है। यहीं से उनके भीतर देश और समाज के लिए कुछ बड़ा करने का जज़्बा पनपने लगा। ब्रिटिश हुकूमत की बेरुख़ी, क्रांतिकारी गतिविधियों की हलचल और जन पीड़ा ने उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर खींचा। देखते ही देखते वे कांग्रेस के एक समर्पित कार्यकर्ता बन गए तन से, मन से और धन से। यही नहीं, उन्होंने बाद में अपने पूरे जीवन और संपत्ति को भी राष्ट्र के नाम कर दिया।
बंगाल से बिहार को अलग करने की मांग की मजबूत आवाज
आज जिस बिहार को हम एक स्वतंत्र राज्य के रूप में जानते हैं, उसकी नींव में मौलाना मजहरुल हक़ की भूमिका अविस्मरणीय है। 1906 में जब बंगाल और बिहार एक ही प्रशासनिक इकाई थे, तब हक़ साहब ने स्पष्ट रूप से बिहार की अलग पहचान और प्रशासन की मांग उठाई। इसी कारण उन्हें बिहार कांग्रेस कमेटी का उपाध्यक्ष चुना गया। उन्होंने संगठन में जी-जान से काम किया और जनता के बीच जाकर कांग्रेस के विचारों को जन-जन तक पहुँचाया। बाद में उनके योगदान से प्रभावित होकर उन्हें बिहार कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष भी बना दिया गया।

चंपारण आंदोलन में अग्रणी भूमिका, जेल की सजा भी भुगती
महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह को सफल बनाने में मौलाना मजहरुल हक़ की भूमिका सिर्फ सहयोगी भर की नहीं थी, बल्कि वे डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ उस आंदोलन के नेतृत्वकर्ता भी बने। अंग्रेज़ों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए उन्हें तीन महीने के लिए जेल भी भेजा। यह वही दौर था जब देश में असहयोग और खिलाफ़त आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था और मौलाना हक़ इनमें भी मुख्य भूमिका निभा रहे थे।
16 बीघा ज़मीन दान कर रचा इतिहास
स्वतंत्रता संग्राम में जब असहयोग आंदोलन चल रहा था, तब मौलाना मजहरुल हक़ ने सिर्फ भाषण और विरोध नहीं किया बल्कि अपनी 16 बीघा जमीन तक दान में दे दी। इसी ज़मीन पर सदाकत आश्रम और विद्यापीठ कॉलेज की स्थापना हुई। यहीं पर महात्मा गांधी, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी बैठकों के लिए जुटते थे और आजादी की रणनीति तय करते थे।
हिंदू-मुस्लिम एकता के सबसे मजबूत स्तंभ
मौलाना हक़ का मानना था कि “हिंदू और मुसलमान एक ही नाव में सवार हैं या तो दोनों साथ उठेंगे या साथ डूबेंगे।” वे अंग्रेजों की ‘Divide and Rule’ नीति को पहचान चुके थे और उसके खिलाफ डटकर खड़े हुए।
- उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और उनकी आज़ादी में भागीदारी का समर्थन किया।
- उन्होंने मुस्लिम महिलाओं से भी आग्रह किया कि वे अपने कपड़े खुद चुनें और सामाजिक कार्यों में भाग लें।
- लंदन में पढ़ाई के दौरान उन्होंने Anjuman-i-Islamia की स्थापना की थी, जो सभी समुदायों के छात्रों को जोड़ने वाला मंच था।
मौलाना मजहरुल हक़ ने गांधीजी के प्रभाव में आकर विलासिता छोड़ दी। उन्होंने अपनी वकालत छोड़ी, इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल की सदस्यता भी त्याग दी, और स्वदेशी जीवन शैली अपनाई। उन्होंने अंग्रेजी कपड़े छोड़कर मारकीन का कुर्ता और गांधी टोपी पहननी शुरू की।
‘देश भूषण फकीर’ का खिताब मिला
उनके इन सभी कार्यों समाजसेवा, आज़ादी की लड़ाई, सांप्रदायिक एकता और महिलाओं के अधिकार को देखते हुए जनता ने उन्हें ‘देश भूषण फकीर’ की उपाधि दी। वे गंगा-जमुनी तहज़ीब के असली प्रतिनिधि थे।
लंदन से शुरू हुई गांधी-मौलाना की दोस्ती, जो आज़ादी तक कायम रही
साल 1888, जब मौलाना मजहरुल हक अपने पिता द्वारा भेजे गए पैसों के सहारे लंदन पढ़ाई के लिए रवाना हुए, तब उन्हें नहीं पता था कि वह न सिर्फ़ एक डिग्री लेकर लौटेंगे, बल्कि भारत के भविष्य को बदलने वाले एक ऐतिहासिक रिश्ते की नींव भी वहीं पड़ेगी। उसी जहाज में उनके सहयात्री थे मोहनदास करमचंद गांधी, जो आगे चलकर महात्मा गांधी कहलाए। जहाज की उस यात्रा में ही दोनों के बीच गहरी मित्रता हो गई, जो जीवन भर बनी रही।
5 दिसंबर 1888 को मौलाना लंदन पहुंचे और वहाँ तीन साल रहकर बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद वे भारत लौटे और पटना में वकालत शुरू की। लेकिन जल्द ही उन्होंने उत्तर प्रदेश की न्यायिक सेवा (Judicial Service) जॉइन कर ली। मगर अंग्रेज अफसरों द्वारा भारतीय अधीनस्थ कर्मचारियों के साथ किए जा रहे अपमानजनक व्यवहार ने उनके मन को कचोटा। अंग्रेज़ों की औपनिवेशिक मानसिकता और भारतीयों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने का व्यवहार उन्हें अस्वीकार्य लगा। इसी कारण, उन्होंने 1896 में नौकरी से इस्तीफा दे दिया और छपरा लौटकर स्वतंत्र वकालत शुरू की।

यह वही दौर था जब वे राष्ट्रवाद की ओर बढ़ रहे थे। लंदन की पढ़ाई, गांधी से गहरी मित्रता, और ब्रिटिश अफसरों की असंवेदनशीलता ने उन्हें आत्ममंथन की राह पर डाल दिया। यही विचार आगे चलकर उन्हें कांग्रेस, सत्याग्रह, और असहयोग आंदोलन की ओर ले गया।
मौलाना मजहरूल ने देखा था अखंड भारत और गंगा-जमुनी तहज़ीब का सपना
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कई चेहरे ऐसे हैं, जिनके बलिदान और त्याग को वक्त ने भले ही पीछे छोड़ दिया हो, लेकिन इतिहास उन्हें कभी भुला नहीं सकता। ऐसे ही एक अमिट नाम हैं मौलाना मजहरूल हक़, जिनकी सोच केवल राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं थी, बल्कि उनका सपना था अखंड भारत, सांप्रदायिक सौहार्द, और सामाजिक समानता का एक ऐसा भारत, जहाँ धर्म, जाति या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो।
मौलाना मजहरूल हक़ ने भारत की आज़ादी को केवल ब्रिटिश शासन से मुक्ति के रूप में नहीं देखा, बल्कि वे राष्ट्रीय एकता, हिंदू-मुस्लिम भाईचारे और सांस्कृतिक समरसता के प्रतीक थे। वे मानते थे कि भारत की ताकत उसकी विविधता में है, और उसी विविधता को एकता में बदलना उनका मिशन था।
संपत्ति और पद सब कुछ देश के नाम कर दिया
मौलाना साहब ने आज़ादी की लड़ाई में किसी भी तरह का व्यक्तिगत लाभ नहीं देखा। उन्होंने अपनी जमीन, घर, वकालत, सरकारी पद, सब कुछ देश को समर्पित कर दिया। यही नहीं, जिस ज़मीन पर आज बिहार प्रदेश कांग्रेस का दफ्तर है, वह भी मौलाना साहब की दान की हुई ज़मीन है।
मृत्यु और विरासत
27 दिसंबर 1929 को मौलाना साहब को पक्षाघात (Paralysis) हुआ और 2 जनवरी 1930 को उनका निधन हो गया। उन्हें उनके फरीदपुर स्थित घर ‘आशियाना’ के बगीचे में ही दफनाया गया। उनकी विरासत आज भी जीवित है पटना स्थित मौलाना मजहरुल हक अरबी-फारसी विश्वविद्यालय (स्थापना: 1998) उनके योगदान का जीवित स्मारक है। बिहार में उनके नाम से सड़कों, संस्थाओं और स्कूलों के नाम आज भी मौजूद हैं।