दो-चार घंटे के लिए तो इन पहाड़ी नदियों की बाढ़ कहर बरपाती है। फिर जब पानी कम होने लगता है तो सोना उगलती हैं। तबग्रामीण बाढ़ के कहर को भूल अपने उपकरण लेकर नदी की जलधारा में उतर जाते हैं और पानी से सोना छानते हैं। उसे बाजार में बेच सालभर के भोजन-पानी की व्यवस्था करते हैं।
वर्षों पुरानी है सोना छानने की परंपरा
थारू-आदिवासी बहुलता वाले दोन क्षेत्र में पहाड़ी नदियों से सोना छानने की परंपरा बहुत पुरानी है। कई पीढिय़ों से आदिवासी समुदाय यह कार्य कर रहे हैं। बरसात में घर का हर सदस्य इस काम में जुट जाता है। सोने के कण छानने के लिए ये लोग लकड़ी की डेंगी, लकड़ी की पाटी व बालू को हटाने के लिए लकड़ी के डिस्क का इस्तेमाल करते हैं।
नदी में रेत के साथ बह कर आए सोने के कण लकड़ी के उपकरण में सट जाते हैं और पानी रेत को बहा ले जाता है। इस पेशे से जुड़े हरिकिशोर महतो कहते हैं कि एक डेंगी पर काम करने के लिए कम से कम तीन लोगों की आवश्यकता होती है। रामावतार महतो कहते हैं कि नदी से सोना छानने के लिए धैर्य व मेहनत की जरूरत है। कई बार ऐसा होता है कि दिनभर मेहनत करने के बाद भी कुछ खास सफलता नहीं मिलती है।
बेचने में होती दिक्कत
बनकटवा गांव के योगीराज महतो का कहना है कि सोना छानने के बाद उसे बेचने में काफी दिक्कत होती है। सोने के कण लेकर बाजार में जाते हैं। वहां स्वर्णकार पहले इन कणों का एक गोला बनाता है। फिर तौलकर औने पौने दाम देता है।
पता नहीं चल सका कहां से आते सोने के कण
आज तक पता नहीं लगाया जा सका कि नदी में सोने के कण कहां से आते हैं। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि ये नदियां तमाम पहाड़ों से होकर गुजरती हैं। इसी दौरान घर्षण की वजह से सोने के कण नदी के पानी में घुल जाते हैं।
‘बेरोजगारी व गरीबी के कारण थारू-आदिवासी समुदाय के लोग इस पेशे से जुड़े हैं। यह काफी परिश्रम व धैर्य का काम है। स्वर्णकारों से उन्हें सही कीमत भी नहीं मिलती है।’
—-रूणमाया देवी
मुखिया, कटवा करमहिया, रामनगर