बेतिया: रजवाड़े मिट गये, देश आजाद हो गया, मगर आज भी रोज बेतिया शहर में बेतिया स्टेट की कचहरी लगती है. यहां हर रोज सैकड़ों रैयत पहुंचते हैं, लगान चुकाते हैं, जमीन के लिए बोली लगाते हैं, कागजात तलाशते हैं.
और यह राजदरबार बिहार सरकार के अधिकारियों-कर्मचारियों द्वारा लगाया जाता है. ऐसा इस वजह से हो रहा है कि बेतिया राज 120 साल से कोर्ट ऑफ वार्ड के अधीन है. अंगरेजों ने बेतिया राज पर कब्जा करने के लिए छल से इस कानून का इस्तेमाल किया था. इसी कानून की वजह से पूरा चंपारण इलाका नीलहे अंगरेजों के कब्जे में आ गया था. नील की खेती तो सौ साल पहले ही खत्म हो गयी, मगर यह काला कानून आज भी जारी है. तकनीकी तौर पर आज भी बेतिया राज के वारिस की तलाश हो रही है.
चंपारण और नील विद्रोह के इतिहास से अवगत रहने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि ब्रिटिश सरकार का कोर्ट ऑफ वार्ड कानून ही उस जमाने में चंपारण की कंगाली व बदहाली का कारण बना था. बेतिया राज पर काफी कर्ज हो गया था, इसे चुकाने के लिए 85 लाख रुपये का कर्ज लिया गया और 1897 में बेतिया राज पर कोर्ट ऑफ वार्ड लगाया गया था. और कोर्ट ऑफ वार्ड के जरिये बेतिया राज की कमान संभालने वाले अंगरेज मैनेजर ने राज की सारी जमीन यूरोपियन इंडिगो प्लांटरों को इसलिए ठेके पर दे दी कि उससे होने वाली आमदनी से कर्ज की भरपाई हो सके।
वैसे तो अंगरेजों के समय में कुछ और राज्यों पर कोर्ट ऑफ वार्ड लगा था, जो एक या दो साल तक चला. मगर बेतिया राज पर लगा यह कोर्ट ऑफ वार्ड इस मामले में अनूठा है कि यह पिछले 120 सालों से लागू है और आज की तारीख में देश का इकलौता कोर्ट ऑफ वार्ड है, जो आजादी के बाद भी चल रहा है. इसका मतलब यह है कि इसके लगने के अगले 50 साल में ब्रिटिश सरकार तो बेतिया राज का वारिस नहीं ही तलाश पायी, बल्कि आजाद भारत की सरकार भी 70 साल में उस वारिस को खोज नहीं पायी है, जिसे राज की संपत्ति सौंप सके. लिहाजा कोर्ट ऑफ वार्ड और उसकी आड़ में राज की संपत्ति की लूट लगातार जारी है।
आज जब हम नीलहों के अत्याचार से मुक्ति के लिए चले चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष का आयोजन कर रहे हैं, ऐसे में कोर्ट ऑफ वार्ड का आज भी लागू होना हमारी शासन व्यवस्था पर एक सवालिया निशान की तरह है।
बेतिया राज के कर्मचारियों से मिली जानकारी के मुताबिक, इस समय राज के पास 4632 एकड़ 31 डिसमिल जमीन है, जो मुख्यतः पश्चिम और पूर्वी चंपारण जिले में है. थोड़ी-थोड़ी जमीन सारण, गोपालगंज, सीवान और पटना जिले में भी है।।
नियमानुसार हर साल इस जमीन की डाक होती है और किसानों को 4000 रुपये प्रति एकड़ की दर से जमीन दी जाती है. इसके अलावा बेतिया राज की व्यावसायिक संपत्तियों को भी 30 साल की लीज पर लोगों को दिया गया है, जिससे किराये के रूप में निश्चित रकम वसूली जाती है. जानकार बताते हैं कि पहले बेतिया राज के पास काफी जमीन हुआ करती थी, यह बिहार के अलावा यूपी के गोरखपुर और इलाहाबाद जैसे शहरों में भी थी. मगर जमीन पर धीरे-धीरे कब्जा होता गया और संपत्ति लगातार घटती रही.
बेतिया राज के पास सिक्के और गहने भी प्रचुर मात्रा में थे, जिन्हें राज की कचहरी के परिसर में खजाने में रखा जाता था. मगर 1990 में चोरों ने खजाने की छत काट कर यह सारी संपत्ति चुरा ली. आज पूर्वी चंपारण के रक्सौल और ढाका में जो लोग राज की जमीन पर बसे हैं, उनसे किराया नहीं वसूला जा पा रहा है. मधुवलिया में 32 एकड़ जमीन तो पहले ही कब्जा की जा चुकी है. जानकार बताते हैं कि मोतीहारी में जो राज की चीनी मिल है और जिसे किराये पर दिया गया है, वहां से भी किराये की वसूली नहीं हो पा रही है।।
इस व्यवस्था की एक और विडंबना यह है कि जमींदारी प्रथा खत्म होने के बावजूद बेतिया राज में लगने वाली कचहरी किसी जमींदार की कचहरी के तर्ज पर ही काम करती है. उसी तरह जमीन लीज पर दी जाती है और लगान वसूली जाती है.
किसान जिस जमीन पर खेती कर रहा होता है, उसका मालिक नहीं होता. हर साल जमीन की नीलामी होती है, जिससे यह भी सुनिश्चित नहीं होता कि कोई किसान आज जिस जमीन पर खेती कर रहा है, कल भी उसी पर कर पायेगा या नहीं. हालांकि, बेतिया राज की इस व्यवस्था की देखरेख बिहार सरकार के बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के हाथों में है और वहां मैनेजर के रूप में एक आइएएस स्तर का अधिकारी बैठता है. इसका काम बेतिया राज की संपत्ति और जमीन-जायदाद की तब तक देख-रेख करना है, जब तक उसका सही वारिस नहीं मिल जाये. मगर दुखद तथ्य यह है कि पिछले 120 साल में बेतिया राज की संपत्ति में लगातार गिरावट आयी है, जमीन पर कब्जे हुए हैं. देखरेख करने वालों पर ही संपत्ति को हड़प कर जाने के आरोप लगते रहे हैं।
कर्मचारी इसके लिए कानूनी प्रक्रिया का हवाला देते हैं. इस संपत्ति पर कई लोगों ने वारिस के रूप में दावा किया था. 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने इन तमाम दावों को निरस्त कर बिहार सरकार से कहा कि अगर कोई और दावेदार हो, तो पेश करे, वरना राजगामीत्व की प्रक्रिया अपना कर राज की संपत्ति को सरकारी खजाने में शामिल कर ले. 1986 में बिहार सरकार ने पटना हाइकोर्ट में अपील की कि अब और कोई दावेदार नहीं है, अतः राजगामीत्व की प्रक्रिया शुरू करने की इजाजत दी जाये. मगर फिर कुछ लोगों ने दावा कर दिया. वे दावे 1995 में खारिज हो गये, तो बिहार सरकार ने फिर से प्रथम अपील की. वह केस आज तक पेंडिंग है. 22 साल बीत चुके हैं. इन 22 साल में बेतिया राज की संपत्ति कितनी घटी, यह कोई पूछने वाला नहीं..
खेती वाली जमीन के लिए लगान की दर 4000 प्रति एकड़ सालाना. जून से लेकर मई तक के लिए. लीज पर एक साल के लिए जमीन दी जाती है.
व्यावसायिक कार्य के लिए 30 साल के लिए जमीन दी जाती है. सबसे पहले संपत्ति की कीमत का 40% सलामी के रूप में लिया जाता है, जो नॉन रिफंडेबुल होता है और फिर 5% सालाना रेंट वसूला जाता है.
कुल 250 से 300 रैयत आज भी हैं.
इसके अलावा बेतिया राज की जमीन पर उनके द्वारा बनाये गये 18-19 मंदिर भी हैं, जिसकी जमीन भी रेंट पर दी जाती है. राज के खजाने से पुजारी को वेतन मिलता है.
मोतिहारी चीनी मिल, मोतिहारी में बेतिया राज की कचहरी, मोतिहारी बस स्टैंड की जमीन भी बेतिया राज की ही बतायी जाती है. यह भी कहा जाता है कि वहां से किराया नहीं आता है.
रक्सौल और ढाका में भी जमीन और दुकानें हैं, मगर किराया नहीं आता.
बेतिया में आज भी रोज लगती है स्टेट की कचहरी
जो वारिस थी, उसे अंगरेजों ने विक्षिप्त करार दिया था
ऐसा नहीं था कि बेतिया राज का कोई वारिस नहीं था. 26 मार्च, 1893 को आखिरी राजा हरेंद्र किशोर सिंह की मृत्यु होने के बाद उनकी पहली रानी शिव रतन कुंवर ने राजगद्दी संभाली थी. 1896 में रानी शिवरतन कुंवर की मृत्यु के बाद राजा हरेंद्र किशोर सिंह की दूसरी पत्नी जानकी कुंवर ने सत्ता संभाली. मगर अंगरेजों ने पहले उन्हें गणित में कमजोर बता कर सत्ता से दूर रखा. फिर उन्हें विक्षिप्त करार कर हमेशा के लिए बेतिया राज की कमान उनसे छीन ली. वे काफी दिनों तक जीवित रहीं और इलाहाबाद में बेतिया राज के महल में उन्होंने अपना बाकी का जीवन गुजारा. आज कहां-कहां बची है