जैसा (पिछली कड़ी- चम्पारण की वो पहचान जो खो गई है, हमारा जिला कल और आज..पार्ट-1) में जिक्र किया गया है कि चंपारण को आधुनिक इतिहास में पहचान दिलाने वाली ‘नील’ अब चंपारण में कहीं नहीं दिखाई देती। प्रतीकात्माक रुप से नील अब सिर्फ और सिर्फ गांधी से जुड़ी जगहों मसलन स्मारकों या संग्राहलयों अथवा किसी (गांधी जी द्वारा स्थापित) विद्यालय में ही दिखाई देती है।
नील का पौधा |
लेकिन नील के धब्बे अन्य रुपों में आज भी, इक्का-दुक्का ही सही, दिखाई दे जाते हैं। नील-धब्बों का यह रुप कोठियों के रुप में आज भी हमें सौ साल पहले लिए चलता है।
चंपारण के सत्याग्रह का पहला और शायद एकमात्र व्यवस्थित इतिहास, चंपारण के समय से ही गांधी जी के सहयोगी रहे और बाद में स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति बनने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है। इसके बाद चंपारण पर जो भी अन्य साम्रगी मौजूद है, वह इसी दस्तावेज़ पर आधारित है। हालांकि (गांधी जी को चंपारण लाने वाले) राजकुमार शुक्ल की डायरी भी शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज है लेकिन डॉ. राजेंद्र प्रसाद की शैली को व्यवस्थित लेखन में रखा जा सकता है।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही हमें बताते हैं कि उस समय चंपारण में करीब 70 कोठियां थीं, जो ‘रैयतों’ (जमीन जोतने वाले कृषक, जमीन के वास्तविक मालिक) से नील की खेती करवाती थीं। ‘कोठी’ को आप तत्कालीन परस्थितियों में शक्ति एक ऐसा केंद्र मान सकते हैं जो किसानों के लिए ‘माई-बाप’ की सबसे निचली, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सीढ़ी हुआ करती थी। हर कोठी के अंतर्गत एक इलाका निश्चित था और हर कोठी का प्रमुख एक अंग्रेज ‘मैनेजर’ हुआ करता था, जिसे ‘निलहा’ कहा जाता था। कोठी का यह सर्वेसर्वा ‘निलहा’ ही तिन-कठिया पर आधारित नील की खेती करवाता। तिन-कठिया पद्धित में एक रयैत को अपने 20 कठ्ठे (एक बीघा) जमीन पर तीन कठ्ठों पर खेती करनी होती थी। एक बार की नील की खेती में तीन कठ्ठे की जमीन अनुपजाऊ हो जाती तो दूसरे तीन कठ्ठे तय हो जाते।
चंपारण की कहानी को सौ साल पहले (गांधी का चंपारण) नाम उपन्यास में सुजाता चौधरी कोठी के अन्य ‘अनिवार्य कार्यों’, मसलन जबरन और बेवजह के कर (लगान) वसूली पर हमारा ध्यान आकर्षित कराती हैं। उनके अनुसार कोठी 40 से अधिक तरह के अलग-अलग कर (टैक्स) किसानों से वसूल करती थी। जिनमें कुछ इस प्रकार हैं… वपही-पुतही, घोड़ही, मोटरही, हवही, दस्तूरी, दीवान, हुण्डा, हरजाना, गुरु भेंटी, दही चिउड़ा आदि इत्यादि! ये वे कर हैं जिनके नाम से आप कुछ-कुछ अंदाजा लगा सकते हैं कि आखिर ये कब-कब लगते होंगे? और विश्वास मानिए नब्बे फीसद आपका अंदाजा सही निकलेगा!
खैर… कहते हैं न, पाप का घड़ा…, वही हुआ। व्यवस्था का अंत तो बहुत पहले ही हो चुका था, अब इन कोठियों के अवशेष भी लगभग पूरी तरह ख़त्म हो चुके हैं। लेकिन फिर भी कुछ जगहों पर इक्का-दुक्का अवशेष आज भी मौजूद हैं। ये खासकर उन जगहों पर हैं जिन कोठियों को या तो सरकार अपने उपयोग में ले रही है या किसी व्यक्ति ने निजी तौर पर इन्हें हासिल किया है।
हमने दो कोठियां देखीं। एक, पिपरा कोठी। पूर्वी चंपारण में मोतीहारी से लगभग दस किमी दूर एक छोटा सा स्टेशन पड़ता है ‘पिपरा’। इसी से सटी हुई एक कोठी है। पिपरा और कोठी के संयुक्त होने से अब यहाँ जो अबादी बस चुकी है, उस जगह को ‘पिपरा कोठी’ के नाम से जाना जाता है।
वर्तमान में इस कोठी को सशस्त्र सीमा बल में अपने अधीन ले रखा है। चंपारण सत्याग्रह स्मृति के तौर पर बिहार सरकार ने इस कोठी के ठीक सामने एक स्मारक का निर्माण कराया है।
यहाँ अगर हम गौर करें तो पुरानी कोठी और वर्तमान कोठी में एक समानता पाते। सौ साल पहले भी यह कोठी शक्ति का केंद्र थी, और आज भी यह शक्ति का एहसास कराती है लेकिन यहाँ एक बुनियादी अंतर है। पहले जहाँ यह शोषणकारी शक्ति थी, वहीं आज इलाके को नक्सल या माओवादी भय से आज़ाद कराने के लिए लोग इसे रक्षात्मक/सकारात्मक शक्ति के तौर पर देखा जाता हैं। शायद यही कारण है कि आसपास के इलाके में रहने वाले लोग इस बात से निराश है कि यहाँ रहने वाली सशस्त्र सीमा बल की बटालियन अब जरा रही है। शायद… हमेशा के लिए!
दूसरी कोठी, पश्चिमी चंपारण में बेलवा कोठी है। इसी बेलवा कोठी के अधिकार क्षेत्र में गांधी को चंपारण में लाने वाले राजकुमार शुक्ल का गाँव साठी-सतबरिया पड़ता था। और इसी कोठी का प्रमुख ए.सी.एमन ‘पागलपन की हद’ तक क्रूर था, जिसने राजकुमार शुक्ल हो ‘सबक सिखाने’ के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाये थे। जैसे कर न देने पर फसल नष्ट करवाना, घर नष्ट करवाना आदि। वर्तमान में यह कोठी भारतीय फिल्म जगत के प्रसिद्ध अभिनेता मनोज वाजपेयी के परिवार के पास है।
वैसे तो चंपारण में आपको गांधी जी से जुड़े कई स्मारक मिल जाएंगे लेकिन यहाँ दो ऐसी जगहों का जिक्र करना ठीक रहेगा, जो स्मारक नहीं हैं। कैसे गांधी का नाम अपने हितों के लिए उपयोग हो सकता है, इसका एक उदाहरण यहाँ देखिए।
चंपारण में जब गांधी जी आए तो (वर्तमान में पूर्वी चंपारण, मोतिहारी) सबसे पहले वह गोरखबाबू के मकान में रुके थे। अगर गांधी से जुड़ी चीजों को स्मारक बनाने की बात है तो इसका संरक्षण जरूरी हो जाता है। आप सोच सकते हैं कि आखिर यह कैसे संभव है कि उन सभी चीजों का संरक्षण किया जाए जो गांधी जी से जुड़ी हों? ठीक है। लेकिन यह प्रश्न उस समय जरुरी हो जाता है जब एक जैसी चीजों पर दो अलग तस्वीरें उभर कर सामने आने आती हैं।
गोरखबाबू का मकान जिस जगह पर था, अब वहाँ उस समय का कुछ भी शेष नहीं बचा। हमने उस जगह रह रहे एक शख़्स से बात करने और तस्वीर लेने की कोशिश की तो उन्होंने न सिर्फ तस्वीर के लिए मना कर दिया बल्कि दो मिनट बात करना भी जरुरी नहीं समझा। परस्थितियों से स्पष्ट था गांधी से जुड़ी किसी भी तरह की चीज यहाँ नहीं थी और जमीन विशुद्ध निजी हितों के अंतर्गत जा चुकी है। अब आगे।
जिस प्रकार मोतीहारी में गोरखबाबू के यहाँ गांधी जी का ठहरना हुआ था, ठीक वैसे ही बेतिया, (तत्कालीन दूसरा बड़ा नगर और आज पश्चिमी चंपारण का मुख्यालय) में हजारीमल धर्मशाला थी और आज भी है। कहते हैं कि स्वयं ‘जमींदार’ हजारीमल गांधी जी को स्टेशन पर लेने गए थे। लेकिन गोरखबाबू के मकान जैसी कहानी यहाँ नहीं है। गांधी को मानने वालों ने उनका स्मारक बनवाने के नाम पर इस धर्मशाला पर मुकद्दमा कर रखा है। इन लोगों का कहना है कि चूंकि गांधी यहाँ रुके थे तो इसे सार्वजनिक स्मारक के रुप में तब्दील किया जाना चाहिए…
लेकिन हजारीमल परिवार की पांचवी पीढ़ी के उमाशंकर झुनझुनवाला (ग्रैंड-ग्रैंड सन) इसकी कुछ और वजह मानते हैं। उनका कहना है कि उनके परिवार के ‘वैचारिक’ झुकाव के कारण यह सब विवाद पैदा किया जा रहा है। वे यहाँ तक तैयार हैं कि अगर शासन-प्रशासन चाहे तो वे बैठ कर ‘जबर्दस्ती’ विवादित की गई धर्मशाला जो अब पूरी तरह खंडहर बन चुकी है, में एक स्थान गांधी स्मारक के रुप में भी नियत कर सकते हैं।
पटना उच्च न्यायालय ने इस धर्मशाला को गांधी स्मारक में तब्दील करने की मांग करने वालों पर जुर्माना भी लगाया था। इस तथ्य से लगता है कि धर्मशाला का वास्तविक मालिक ‘ट्रस्ट’ इस विवाद को जीत रहे हैं लेकिन जिस तरह से मामला ‘उलझाया’ गया है, उससे चीजें इतनी आसानी से सुलझती हुई नहीं दिखती।
अब यहाँ एक तथ्य और देखिए… ‘जमींदार’ हजारीमल का परिवार जब गांधी जी को आमंत्रित करता है, उनका आदर-सत्कार करता है, गांधी को पनाह देने से अंग्रेजों के नाराज होने का डर मोल ले सकता है, तो वह इतने सब से ‘गांधीवादी’ नहीं बनता लेकिन आगे चलकर अगर यही परिवार (स्वतंत्रता के समय) एक ‘हिंदू’ अनाथालय की स्थापना करता है तो वह परिवार ‘हिंदूवादी’ और (आधुनिक संदर्भ में) ‘सांप्रदायिक’ जरुर हो जाता है!
समय से परे देखने की कोशिश कीजिए… यह ‘आडंबर’ हमें अपने चारों और से किस हद तक जकड़े हुए है?
खैर… हम आगे बढ़ेगे। संभव है कि इसी तरह के ‘आडंबर’ और भी मिलें। फिलहाल, इस कड़ी में इतना ही।