चम्पारण की वो पहचान जो खो गई है, हमारा जिला कल और आज..पार्ट-1

By: Apna Bettiah

On: May 27, 2017

मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि यहाँ आने से पहले मैं चंपारण का नाम तक नहीं जानता था। नील की खेती होती है, इसका खयाल भी नहीं के बराबर था। नील की गोटियां मैंने देखी थीं पर वे चंपारण में बनती हैं और उनके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं थी


अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में गांधी जी चंपारण के बारे कुछ ऐसा लिखते हैं।

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लेकिन चंपारण की पहचान के बारे में अब ऐसा नहीं है।

चंपारण का नाम आते ही एक सामान्य ‘इतिहास’ के छात्र के मानस में महात्मा गांधी घूमने लगते हैं। वही महात्मा गांधी जो चंपारण जाने से पहले वहाँ के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे! लेकिन थोड़ा सा ठहरिए… पिछले सौ सालों से चंपारण क्यों हमारी ‘चेतना’ में समा गया है, इसका एक कारण गांधी हैं, लेकिन इस काल के पीछ चलें तो हम पाएंगे कि हजारों सालों से, न सिर्फ भारत के भूगोल में यह इलाका महत्वपूर्ण रहा बल्कि इसका इतिहास भी हमेशा ‘कुछ खास’ रहा है।

‘चंपा के फूलों’ से लदे पेड़ों की धरती के कारण इस इलाके का नाम पहले ‘चंपा-अरण्य’ पड़ा और फिर जोड़ते-घटते हुए (अप्रभंश) ‘चंपारण’ हो गया।

“सौ साल पुराने इतिहास के करण, जिस वजह से हम इसे याद करने बैठे हैं, उस इतिहास से परे चंपारण रामायण काल और इसके इर्द-गिर्द घूमता है।”

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              रामायण लिखने वाले महर्षि बाल्मीकि का आश्रम इसी चंपारण में था जो आज उन्हीं के नाम पर एक नगर ‘बाल्मीकि नगर’ अपने में बसाए है। हिमालय की तराई और नेपाल से सटे इस छोटे से नगर पर, उस इलाके के अधिकतर गांव निर्भर हैं। वन्य जीवों के संरक्षण के लिए बाल्मीकि नामक राष्ट्रीय उद्यान (पार्क) है और इसी में बाघ आरक्षित क्षेत्र(टाइगर रिर्जव) भी है। एक समय लव-कुश और श्रीरामचंद्र जी का युद्ध भी चंपारण के इसी   इलाके में कहीं हुआ था।
               
                                 इसके अलावा महाभारत काल में पांडवों ने वनवास का जो समय राजा विराट के यहाँ व्यतीत किया, वह भी इसी चंपारण में पड़ता है।

पौराणिक इतिहास से इतर यदि हम विशुद्ध इतिहास की बात करें, जो लिखित है और ज्ञात है तो उसमें ईसा से करीब छः सौ साल पहले जिन 16 महाजनपदों का जिक्र आता है, उसमें ‘लिच्छवी’ राजवंश के राज्य के अंतर्गत यह इलाका आता था। इसके बाद उल्लेखनीय रुप से अशोक का नाम इस इलाके से जुड़ा है। अशोक के कई अभिलेख इस इलाके में देखने को मिलते हैं। 

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वर्तमान में पश्चिमी चंपारण जिले के छोटे से क़स्बे रामनगर के पास एक छोटे से गाँव रामपुरवा में अशोक महान का ऐसा ही एक स्तंभ लेख पाया गया है। आज इस स्तंभ लेख को भारतीय पुरातत्व विभाग अपनी देखरेख में लिए है।

(प्रशासनिक दृष्टि से वर्तमान चंपारण दो जिलों में विभाजित है। पूर्वी चंपारण, जिसका मुख्यालय मोतिहारी है और पश्चिमी चंपारण, जिसका मुख्यालय बेतिया है)

अशोक के इसी स्तंभ के शीर्ष पर बैठे हुए सांड की आकृति मिली है। वर्तमान में इसे दो टुकड़ों में संरक्षित किया गया है। आम लोगों को जानकारी देने वाला कोई बोर्ड इस परिसर में नहीं लगाया गया है लेकिन पुरातत्व सर्वेक्षण की तरफ से पांच हजार रुपए माह के वेतन पर नियुक्त रामपुरवा के जोगेंद्र मांझी यहाँ पर आने वाले लोगों को एक सांस में इस स्तंभ की जानकारी दे देते हैं। कहा जाता है कि सम्राट अशोक अपनी तीर्थ यात्रा के दौरान इस जगह आए हुए थे।
इसके बाद का बहुत उल्लेखनीय उदाहरण इस इलाके का नहीं मिलता। सन 1764 में लड़ी गई बक्सर की लड़ाई के बाद यह इलाका इलाहाबाद की संधि में अंग्रेजों को सौंप दिया गया।

फिर 19वीं शताब्दी के आरंभ में यहाँ नील की खेती शुरु हुई जो शताब्दी-मध्य के आसपास शोषणकारी बन गई। यातायात की सुविधा अच्छी न होने (रेलों का अभाव) के कारण बहुत छोटे-छोटे क्षेत्रों तक ही सीमित थी।

नील के उत्पादन के लिए बहुत अच्छी (उर्वर) भूमि की आवश्यकता होती है, जो चंपारण में बहुत अच्छी तरह उपलब्ध थी तो धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते यह इलाका नील के लिए कुख्यात हो गया। यह इलाका हिमालय की तराई में पड़ता है या उससे सटा हुआ है। चंपारण सत्याग्रह के समय गांधी के सहयोगी और बाद में भारत के पहले राष्ट्रपति बने डॉ. राजेंद्र प्रसाद चंपारण की जलवायु पर लिखते हैं कि चंपारण की जलवायु बिहार के अन्य जिलों की अपेक्षा खराब समझी जाती है। तराई की हवा तो बहुत ही हानिकारक है। (लेकिन) यहाँ गर्मी अन्य भारत के मुकाबले कुछ कम पड़ती है और सर्दी कुछ अधिक, शायद इसी कारण अग्रेंजों ने यहाँ रहना पसंद करते हैं। हो सकता कि जलवायु की अनुकूलता ने भी अंग्रेजों को यहाँ अपनी ‘कोठियां’ स्थापित करने के लिए प्रेरित किया हो। (कोठियों की चर्चा अन्य भाग में की गई है)

“इस तरह देखें तो चंपारण की पहचान से जुड़े दो प्रमुख कारण उभर कर आते हैं। एक, चंपा के पेड़, जिससे इसका नाम चंपारण पड़ा और दूसरा नील की खेती, जिस कारण हम इसे याद करने बैठे हैं”

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आज दोनों ही पहचान चंपारण से मिट चुकी हैं। चंपा के पेड़ अब बहुत खोजबीन करने के बाद ही आपको किसी घर के गार्डन या आंगन में दिखेंगे, वहीं नील के पौधे सिर्फ और सिर्फ गांधी से जुड़ी जगहों मसलन स्मारकों या संग्राहलयों अथवा किसी (गांधी जी द्वारा स्थापित) विद्यालय में ही दिखाई देंगे।


इसी विषय से जुड़े हुए एक दूसरे नजरिए से यदि चंपारण को देखें तो नील एक नगदी फसल थी, जिसके स्थान पर आज गन्ना की खेती इस इलाके की प्रमुख नगदी फसल बन गई है। इसके अलावा चंपारण के एक छोटे से इलाके ‘मेहसी’ में (लीची का अधिकतर उत्पादन पड़ोसी जिले मुज्जफरपुर में होता है) की जाने वाली लीची की पैदावार भी न सिर्फ इस इलाके को बल्कि पूरे बिहार को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिला रही है। लीची और नील में आप एक समानता पा सकते हैं। जहाँ नील की फसल प्रमुख रुप से इस इलाके के लोगों के लिए नहीं थी, वहीं यहाँ उत्पादित लीची के साथ भी कुछ ऐसा ही संयोग मिलता है, हालांकि इसके कारण नील से एकदम भिन्न हैं लेकिन फिर भी कहा जाता है कि यहाँ उत्पादित लीची इस इलाके के लोगों को नसीब नहीं होती और देश के अन्य भागों में (उच्च क्रय शक्ति वालों को) भेज दी जाती है, या विदेशों में निर्यात कर दी जाती है!

जैसा पहले उल्लेख किया जा चुका है कि नील की खेती के पीछे यहाँ की उर्वरा शक्ति बहुत अधिक होना था तो आज भी यहाँ की मिट्टी यह विशेषता लिए हुए है, और बिहार के उन शीर्ष जिलों में शामिल है जो खेती की दृष्टि से सर्वाधिक उन्नत इलाकों में आते हैं। इसे अगर आम जन की भाषा में कहा जाए तो चंपारण की मिट्टी में इतनी क्षमता है कि पूरे बिहार का पेट अपनी उपज से भर सकती है!

लेखक: अमित एवम्  विश्वजीत मुखर्जी

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